लोकसभा सीटों के परिसीमन का मुद्दा हर दिन गरम होता जा रहा है. संडे को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन की अध्यक्षता में डीएमके सांसदों की बैठक हुई. बैठक में इस मुद्दे को संसद में उठाने तथा यह सुनिश्चित करने का संकल्प लिया गया कि तमिलनाडु को एक भी लोकसभा सीट न गंवानी पड़ी. इसके अलावा डीएमके सांसदों ने आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पंजाब के राजनीतिक दलों से समर्थन जुटाने का प्रयास करने का संकल्प लिया . माना जा रहा है कि इन सभी राज्यों में परिसीमन के बाद लोकसभा सीटें घट सकती हैं. डीएमके की रणनीति यह है कि इस मुद्दे पर केंद्र के खिलाफ संघर्ष का हिस्सा बनाने का संकल्प लिया जाए. इस उद्देश्य के लिए, डीएमके सांसद इंडिया ब्लॉक में शामिल अपने सहयोगी दलों के साथ समन्वय करेंगे.पर सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस हो या टीएमसी इस मुद्दे पर डीएमके साथ जाएंगे. अब इस मुद्दे पर बीजेपी ही नहीं संकट में है, विपक्ष भी मुश्किल में है कि क्या किया जाए? अभी तक इंडिया गुट के किसी भी उत्तर भारतीय नेता का बयान इस मुद्दे सामने नहीं आया है. आइये देखते हैं कि इंडिया गुट के लिए क्यों फंस गया है मामला?

1-राहुल के विचार जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी का क्या होगा

राहुल गांधी पिछले कई सालों से लगातार जातिगत जनगणना की बात करते रहे हैं. संसद से लेकर सड़क तक जहां भी राहुल गांधी स्पीच देते हैं एक बार जाति जनगणना की बात जरूर करते हैं. इसके साथ ही जिसकी जितनी आबादी-उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात भी वो उठाते रहे हैं.  कभी बजट के निर्माण में तो कभी राम मंदिर के उद्घाटन का जिक्र करते हुए वो अकसर पूछते रहे हैं कि् इन इवेंट्स में कितने प्रतिशत दलितों और ओबीसी की हिस्सेदारी हुई है? राहुल गांधी के इस अभियान को देखते हुए नहीं लगता कि डीएमके को परिसीमन के मुद्दे पर राहुल गांधी का समर्थन मिलने वाला है. राहुल गांधी अगर दक्षिण के राज्यों को विशेष तरजीह दिलाने की बात करते हैं तो जाहिर है कि यह मान लिया जाएगा कि वो आबादी के मुताबिक हिस्सेदारी के सिद्धांत से दूर हट रहे हैं. 

2-मुस्लिम संसदीय सीटों की बढ़ोतरी को कैसे नजरअंदाज करेगा इंडिया

यह विचार करने योग्य बात है कि अगर हिंदी भाषी क्षेत्र में संसदीय क्षेत्रों की संख्या बढ़ जाती है तो जाहिर है संसदीय क्षेत्र सिकुड़ जाएंगे.इसका मतलब है कि निर्वाचन क्षेत्रों का आकार छोटा हो जाएगा, और जब ऐसा होता है तो सबसे अधिका फायदा अल्पसंख्यक समुदायों को होगा. बड़े संसदीय सीट होने से मुस्लिम बस्तियों की हिस्सेदारी छोटी हो जाती है. जब संसदीय सीट छोटे हो जाएंगे तो बहुत सी सीटों पर मुस्लिम कैंडिडेट चुने जाने की संभावना बढ़ जाएगी. यह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आसानी से दिखाई दे रहा है. केरल और असम और भी स्पष्ट नजर आएगा. सवाल यह है कि क्या INDIA गुट की पार्टियां जिनका अल्पसंख्यक वोट कोर वोट हैं क्या जनसंख्या के आधार पर परिसीमन का दक्षिण के राज्यों का सहयोग कर सकेंगी? फिलहाल उम्मीद तो बहुत कम है. 

3- जहां तक प्रजनन दर की बात है सभी राज्यों का कम हो रहा है

तमिलनाडु, आंध्र और कर्नाटक में प्रजनन दर 1.7 से 1.8 के बीच है. केवल पांच राज्य 2.1 से ऊपर हैं- बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, मेघालय और मणिपुर. इनमें से केवल बिहार की प्रजनन दर लगभग 3 है, जो बहुत ज्यादा है. उत्तर प्रदेश 2.35 पर है, और लगातार घट रही है. इस तरह देखा जाए तो कुछ राज्यों को छोड़कर सभी राज्यों का प्रजनन दर कम हो रही है. इसलिए इसके आधार पर यह कहना कि कुछ राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया ये ठीक नहीं होगा. ये ठीक उसी प्रकार होगा जैसे कि यह कहा जाए कि हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों ने परिवार नियोजन को कम अपनाया. क्योंकि मुसलमानों में भी जनसंख्या दर में गिरावट तो आई ही है. इसी तरह हिंदुओं में सवर्ण, ओबीसी और दलित जनसंख्या के लिए कहा जा सकता है. इसलिए दक्षिण के लिए विशेष सहूलियत दिया जाना कई तरह के विवाद पैदा कर सकता है. जाहिर है कि इंडिया गुट के लिए आसान नहीं होगा कि वह अपने दक्षिण के सहयोगी डीएमके और अन्य पार्टियों को साथ देने के लिए स्टैंड ले सके.

4-डीएमके के सहयोगी इंडिया गुट के साथी चुप क्यों हैं?

सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि अगर दक्षिण के तर्क इतने मजबूत हैं तो डीएमके को उत्तर भारत के इंडिया गुट के अन्य सहयोगियों का साथ क्यों नहीं मिल रहा है. आखिर बीजेपी का विरोध करने वाले अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन और राहुल गांधी क्या 1971  की जनगणना को आधार मानने को तैयार हैं? पत्रकार आर जगन्नाथन लिखते हैं कि अगर टीएफआर में कमी राज्यों को पुरस्कृत करने का एकमात्र आधार है, तो इस तथ्य को कैसे सही ठहराया जा सकता है कि 2001 में एससी/एसटी के लिए सीटें क्रमशः 79 से 84 और 41 से 47 कर दी गईं? तो जनसांख्यिकीय रूप से कमजोर प्रदर्शन एससी/एसटी को राजनीतिक रूप से ज्यादा सीटें देने का आधार है, लेकिन सभी राज्यों के लिए नहीं? 

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