भारत विभाजन के समय पड़ी मदरसे की नींव
देवबंद में मदरसे की शुरुआत 1866 में देवबंदी आंदोलन के समय हुई थी। यह पुनरुत्थानवादी आंदोलन इस्लाम के मूल सिद्धांतों पर लौटने की वकालत करता था। भारत के विभाजन के बाद देवबंदी आंदोलन के अनुयायियों ने पाकिस्तान में भी मदरसों की स्थापना की। इसी दौरान शुरू हुआ पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर बना दारुल उलूम हक्कानिया है। कई साल तक ये मदरसा क्षेत्र के महत्वपूर्ण धार्मिक शिक्षण संस्थानों में रहा लेकिन 80 और खासतौर 90 के दशक में इसे तालिबान की ट्रेनिंग कैंप की तरह देखा जाने लगा। ये इसके संस्थापक शेख अब्दुल हक की मौत के बाद शुरू हुआ।
दारुल उलूम हक्कानिया 1980 के दशक तक कभी पेशावर के बाहर सुर्खियों में नहीं आया। कई दशक इस मदरसे को चलाने के बाद 1988 में अब्दुल हक की मौत हुई। इसके बाद उनके बेटे सामी उल हक ने मदरसे की कमान संभाली। सामी ने मदरसे की दिशा बदली और यहां जिहाद के उग्र विचार को बढ़ावा दिया। सामी उल हक ने जल्दी ही मदरसे को तालिबान नेताओं के लिए ट्रेनिंग कैंप में बदल दिया। इसका मकसद अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने के लिए लड़ाके तैयार करना था।
दारुल उलूम हक्कानिया से पढ़कर निकले मुल्ला उमर और हक्कानी नेटवर्क की स्थापना करने वाले जलालुद्दीन हक्कानी जब दुनियाभर में चर्चा में आए तो इस मदरसा पर भी लोगों का ध्यान गया। सोवियत संघ के बाद अमेरिका से अफगानिस्तान में लड़ने वाले लोग इस मदरसे से निकले। इसके चलते मदरसे को पश्चिम के मीडिया मे जिहाद यूनिवर्सिटी और सामी उल हक को फादर ऑफ तालिबान का नाम दिया। सामी हक की 2018 में मौत के बाद उनके बेटे हामिद उल हक ने मदरसे की कमान संभाली थी। हामिद की शुक्रवार को हुए विस्फोट में मौत हुई है।