पहले की तुलना में बदला हुआ होगा रुख
अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार कमर आगा कहते हैं कि ‘ट्रंप अपने पिछले पहले कार्यकाल में ईरान को लेकर बेहद आक्रामक रहे थे,आज के हालात में वो चाहेंगे कि ईरान में सत्ता परिवर्तन हो, क्योंकि अमेरिकन आर्मी किसी युद्ध में शामिल होना नहीं चाहेगी। मिडिल ईस्ट में अमेरिका की खोई साख को हासिल करने को लेकर ट्रंप अपनी ओर से पूरी कोशिश करेंगे। जिसके तहत वो नहीं चाहेंगे कि वो इजरायल का साथ देने के लिए किसी युद्ध में उलझें।दिक्कत ये है कि अरब वर्ल्ड में अमेरिका विरोधी सेंटिमेंट बहुत मजबूत हुआ है, जिससे कि सऊदी और कुवैत जैसी प्रो यूएस जैसी सरकारें अमेरिकी नीतियों को समर्थन देने की चुनौती का सामना कर रही हैं। इन देशों में जनमानस मानता है कि इन सरकारों को अमेरिका को लेकर कड़ा रुख रखना होगा। ये अमेरिका के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं।
मिडिल ईस्ट देशों पर बनाएंगे दबाव
वहीं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार डॉ॰ ओमैर अनस कहते हैं कि ट्रंप चाहेंगे कि वो सीजफायर के लिए अमेरिका पर दबाव बनाएं। इसके अलावा सऊदी अरब के साथ जो अब्राहम अकॉर्ड उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में शुरू किया था, उसके भी टेबल पर फिर से आने की संभावना है। वो इसे पूरी गंभीरता से आगे ले जाने की कोशिश करेंगे, जिससे कि मिडिल ईस्ट देशों पर दबाव बनाया जा सके।
रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर क्या होगा कदम?
रूस यूक्रेन युद्ध को लेकर ट्रंप कहते आ रहे हैं कि वो युद्ध जल्द खत्म होना चाहिए। हालांकि ये अलग बात है कि इसे लेकर वो जेलेंस्की को पूरी तरह से सपोर्ट करने से बचना चाहेंगे। अनस कहते हैं कि रूस के खिलाफ इस युद्ध में वो जेलेंस्की को इस तरह से पूरा सपोर्ट देने के मूड में शायद ना हो जिस तरह बाइडेन प्रशासन ने दिया था। वो कहते रहे हैं कि ये पूरी तरह से यूरोप का युद्ध है, ऐसे में वो जेलेंस्की को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश कर सकते हैं कि वो साल 2020 की स्थिति के लिए राजी हो जाए । वहीं वो पुतिन को भी ये आश्वासन दे सकते हैं कि जेलेंस्की नाटो ज्वाइन नहीं करेगा। दरअसल सीरिया और यूक्रेन में अमेरिकी संसाधन दिशाहीन खर्चे की ओर बढ़े थे। अमेरिका ने इसे लेकर कोई एक्जिट प्लान नहीं बनाया है, जो सही नहीं है।
जानकार कहते हैं कि ट्रंप इस रणनीति पर काम करने की कोशिश करेंगे कि ये देश अपने विवादों से खुद ही निपट लें और अमेरिका थोड़ी दूरी बनाए । लेकिन ये इतना आसान नहीं है, प्रचार के दौरान नेताओं के दावों और उन्हें असलियत में जमीन पर उतरने में खासा गैप होता है।