इस युद्ध की याद हर साल होली के दिन इन 28 गांवों में ताजा हो जाती है। डलमऊ क्षेत्र के लोग इसे अपने पूर्वजों के बलिदान की स्मृति के रूप में देखते हैं और होली के दिन रंगों से दूर रहकर शोक मनाते हैं।
गांवों में शोक का माहौल
होली के दिन जहां देशभर में लोग रंगों में डूबे नजर आते हैं, वहीं डलमऊ के इन गांवों में सन्नाटा पसरा रहता है। न बच्चे रंग लेकर सड़कों पर दौड़ते हैं, न ही ढोल-नगाड़ों की थाप सुनाई देती है। स्थानीय निवासी राम प्रसाद बताते हैं, “हमारे बुजुर्गों से सुना है कि होली के दिन हमारे राजा और सैनिकों ने अपनी जान दी थी। उनकी शहादत को सम्मान देने के लिए हम रंग नहीं खेलते।”
गांव की महिलाएं भी इस दिन घरों में चुपचाप रहती हैं। पकवान बनाने या उत्सव मनाने की कोई तैयारी नहीं होती। एक अन्य ग्रामीण श्याम सुंदर ने कहा, “हमारे लिए होली का मतलब खुशी नहीं, बल्कि उस दर्द की याद है जो हमारे इतिहास का हिस्सा है।”
परंपरा का निर्वहन
हालांकि, ये गांव होली को पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं करते। परंपरा के अनुसार, होली के तीन दिन बाद अबीर-गुलाल लगाकर इस पर्व को सीमित तरीके से मनाते हैं। इस दिन हल्की-फुल्की खुशियां बांटी जाती हैं, लेकिन बड़े उत्सव से परहेज किया जाता है। यह प्रथा इन गांवों में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है और आज भी युवा इसे निभाने में पीछे नहीं हटते।
प्रभावित गांव और उनकी संस्कृति
डलमऊ तहसील के इन 28 गांवों में पखरौली, बहादुरपुर, गौसगंज, और आसपास के कई छोटे-बड़े गांव शामिल हैं। ये सभी गांव आपस में सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से जुड़े हुए हैं। यहां के लोग मानते हैं कि यह परंपरा न केवल उनके इतिहास को जीवित रखती है, बल्कि उनके समुदाय की एकता को भी मजबूत करती है।
स्थानीय इतिहासकार डॉ. राम नारायण मिश्रा बताते हैं, “यह परंपरा एक अनोखा उदाहरण है कि कैसे कोई समुदाय अपने अतीत को सम्मान देता है। यह सिर्फ शोक की बात नहीं, बल्कि बलिदान और वीरता की गाथा है जो इन गांवों की पहचान बन गई है।”