नई दिल्ली: कभी कश्मीर को नूरजहां ने ‘धरती का स्वर्ग’ कहा था, लेकिन आज ऐसी स्थिति अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के कुछ देशों की है। महज चार सदी पहले तक जो देश अंधकार युग से गुजर रहे थे, उनका समाज इतना बदल चुका है कि दुनिया उनकी ओर खिंची चली आती है। मौका मिलते ही दुनियाभर के लोग जायज-नाजायज तरीकों से इन देशों की सीमा में घुसने की कोशिश करते हैं। अतीत में यह घुसपैठ बेहतर जीवन और समृद्ध भविष्य की गारंटी होती थी, लेकिन ट्रंप युग में हालात बदल गए हैं। स्वर्गिक सुख की चाहत में अवैध तौर पर अमेरिका पहुंचे लोगों को ट्रंप प्रशासन अमानवीय तरीके से वापस भेज रहा है, जिनमें भारतीय भी हैं।

वापसी पर विवाद :
बेड़ियों में जकड़े हाथ-पांव लिए अमेरिकी सैनिक जहाजों से भारत की धरती पर उतरे अवैध प्रवासियों की तस्वीरों से देश का विचलित होना स्वाभाविक है। ऐसे में अवैध प्रवासन के कारणों की पड़ताल होनी चाहिए थी, सार्थक विमर्श होना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसकी चर्चा मौजूदा सरकार की कूटनीतिक कामयाबी और नाकामी के संदर्भ में ही हो रही है।गुलामी की मानसिकता : करीब 200 वर्षों की ब्रिटिश गुलामी के चलते हमारी सोच ऐसी बन गई है कि हमें विदेश, विशेषकर अमेरिका और यूरोप से लौटा सामान्य व्यक्ति भी महान नजर आता है। हम खुद को विश्वगुरु कहते भी नहीं थकते, लेकिन हमारा समाज बड़ा विद्वान उसे मानता है, जिस पर पश्चिम का ठप्पा लगा हो।

भाई-भतीजावाद : वैसे पश्चिम कई मामलों में बेहतर है भी। अमेरिका समेत समूचे पश्चिम का सामाजिक विकास प्रतिभा और श्रम के मूल्यों को तवज्जो देते हुए हुआ है। चाहे जिस समाज या समुदाय की प्रतिभा हो, उसका रंग चाहे कुछ भी हो, पश्चिम उसे मौका देता है और व्यवस्था उसे स्वीकार करती है। जरा अपने समाज को देखिए। सत्ता की चाहत में हर राजनीतिक दल का दावा भाई-भतीजावाद का खात्मा, क्षेत्रवाद पर लगाम का होता है। लेकिन क्या हकीकत में ऐसा हो पाया है? बिल्कुल नहीं।

VIP को तवज्जो : अपने देश में अब तक ऐसी ठोस व्यवस्था नहीं बन पाई है, जिसमें हर युवा को योग्यता और क्षमता के अनुसार काम करने का अवसर मिल सके। हम लोकतांत्रिक होने का लाख दावा करें, लेकिन हमारी व्यवस्था में आम आदमी का मोल किसी VIP की तुलना में बहुत कम है। सार्वजनिक अस्पतालों, परिवहन, सरकारी दफ्तरों आदि में इसे बखूबी महसूस कर सकते हैं। VIP का काम पहले होता है। रेलवे स्टेशनों पर VIP के लिए अलग कॉरिडोर बन जाता है। लेकिन आम आदमी को लंबी लाइन में खड़ा होना पड़ता है। हाल के कुंभ को ही देख लीजिए, जहां VIP के लिए आला इंतजाम रहे और आम श्रद्धालुओं को तमाम कष्ट झेलने पड़े।

विदेशी धरती पर पहचान : ऐसे में कोई अचरज की बात नहीं कि बड़ी संख्या में लोग देश छोड़ रहे हैं। विदेश मंत्रालय के मुताबिक, करीब एक दशक में 15 लाख भारतीय नागरिकता छोड़ चुके हैं। यह आबादी गोवा या अरुणाचल प्रदेश की जनसंख्या जितनी है। नागरिकता छोड़ने वाले लोगों की पृष्ठभूमि को लेकर कोई विश्लेषण मौजूद नहीं है। मोटे तौर पर माना जाता है कि इनमें ज्यादातर लोग मजबूत आर्थिक पृष्ठभूमि वाले हैं। लेकिन ऐसे भी होंगे, जो उद्योगपति नहीं हैं, जिनके परिवार को भारत में योग्यता के हिसाब से मौका नहीं मिला। विदेशी धरती ने उनकी योग्यता को पहचाना और बाहें फैलाकर स्वागत किया।

गैर आरक्षित समुदाय : आज आरक्षण से जुड़ा विमर्श ऐसे बिंदु पर पहुंच गया है, जहां इसकी चर्चा करना भी मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। हालांकि देश की अदालतें अक्सर टिप्पणी कर रही हैं कि इस व्यवस्था को अनंतकाल तक नहीं चलाया जा सकता। बहुत कम लोग स्वीकार कर पाते हैं कि हमारी इस व्यवस्था के चलते आरक्षण के दायरे से बाहर के समुदायों का एक बड़ा और प्रतिभाशाली वर्ग पलायन को मजबूर है। आजादी के बाद जब तमिलनाडु में आरक्षण व्यवस्था बाकी राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा बड़े सामुदायिक दायरे को कवर करने लगी तो वहां के गैर आरक्षित समुदायों के लोगों ने विदेशों का रुख किया। आज अमेरिका या मलयेशिया या सिंगापुर में जो लोग सफल कारोबारी हैं, बड़े इंजीनियर हैं, उनमें ज्यादातर इन्हीं समुदायों के हैं।

श्रम का मोल : अमेरिकी धरती हो यूरोप के पश्चिमी इलाके की माटी, उनके यहां प्रतिभाओं का स्वागत है, श्रम का मोल है। उनके यहां आगे बढ़ने की गुंजाइश है। वहां मनुष्य को मनुष्य समझने की सोच है। बेहतर जीवन, स्वास्थ्य और शैक्षिक सुविधाएं मौजूद हैं। यही वजह है कि वहां की धरती लोगों को अक्सर लुभाती है। वहां जाने के लिए लोग कानून की बंदिशें तोड़ने से भी परहेज नहीं करते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक हैं)

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